अंतिम समय आने पर कहेगा, ‘अब ज्ञानी आएँ और मुझे दर्शन हो जाएँ, दो घंटे का आयुष्य बढ़ा देना मेरा, हे भगवान!’ ऐसे याचना करता है। अब याचना मत कर। अब क्यों गिड़गिड़ा रहा है? जब सत्ता थी तब इस्तेमाल नहीं की। अब सत्ता नहीं है तो माँग रहा है!
परम पूज्य दादा भगवानभगवान ने कहा, ‘क्या करने से मोक्ष में जाया जा सकता है?’ समकित हो जाए तब जाया जा सकता है अथवा ‘ज्ञानी पुरुष’ की कृपा हो जाए, तो।
परम पूज्य दादा भगवानएक ही अकषायी मनुष्य के दर्शन किए जाएँ तो यों ही पाप धुल जाएँ। ‘ज्ञानी पुरुष’ के अलावा और कोई मनुष्य अकषायी नहीं होता।
परम पूज्य दादा भगवानजीवन के ध्येय दो प्रकार से तय होते हैं। यदि हमें ज्ञानी पुरुष नहीं मिलें तो हमें संसार में इस प्रकार जीना चाहिए कि हम किसी के लिए दुःखदायी नहीं बनें। हमसे किसी को किंचित्मात्र भी दुःख नहीं हो, यही सबसे बड़ा ध्येय होना चाहिए और बाकी तो प्रत्यक्ष ‘ज्ञानी पुरुष’ मिल जाएँ तो उनके सत्संग में ही रहें, उससे तो आपके हरएक काम हो जाएँगे, सभी पज़ल सॉल्व हो जाएँगे।
परम पूज्य दादा भगवानयदि ‘ज्ञानी पुरुष’ का सिर्फ एक ही अक्षर समझ में आ जाए तो कल्याण हो जाए!
परम पूज्य दादा भगवानअंतरशत्रु का जिन्होंने नाश कर दिया है, ऐसे अरिहंत को नमस्कार करता हूँ। अंतरशत्रुओं को पहचानो। क्रोध-मान-माया-लोभ, ये अंतरशत्रु हैं!
परम पूज्य दादा भगवानसंसार अर्थात् जो निरंतर परिवर्तित होता ही रहता है! वहाँ ‘ऐसा हो जाएगा या वैसा हो जाएगा’ ऐसा करने की क्या ज़रूरत है? आज भाव दिखाएगा और कल अभाव दिखाएगा, उस पर मोह कैसा? त्रिकाली वस्तु जो कि खुद का ‘स्वरूप’ है, उस पर मोह करने योग्य है और ‘स्वरूप का भान’ करवानेवाले ‘ज्ञानीपुरुष’ पर भाव करने योग्य है। उनमें कभी बदलाव नहीं आता।
परम पूज्य दादा भगवानकिसी भी चीज़ को ‘निज’ स्वभाव में जाने के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ती। विशेष भाव में ले जाने के लिए मेहनत करनी पड़ती है! पानी को गरम करना हो तो कितनी मेहनत करनी पड़ती है? अगर ठंडा करना हो तो? कुछ भी नहीं करना पड़ता क्योंकि वह उसका स्वभाव ही है! उसी प्रकार आत्मा स्वभाविक रूप से मोक्ष स्वरूप है। इसलिए ‘ज्ञानीपुरुष’ कृपा करके रास्ता बना देते हैं। ‘ज्ञानी’ की आज्ञा में रहने से मोक्ष होता है, कुछ मेहनत नहीं करनी पड़ती। मेहनत से तो यह संसार खड़ा होता है। जप-तप किए थे, उसी से तो यह सारा फल मिल रहा है।
परम पूज्य दादा भगवानशास्त्र क्या है? शब्दरूपी है। वे शब्द हैं। उनके अर्थ निरावृत होते-होते शब्दार्थ होता है। फिर अर्थ आगे बढ़ते हैं। वे अर्थ निरावृत होते-होते परमार्थ तक पहुँचते हैं। वहाँ तक दृष्टि पहुँच जाती है। लेकिन शास्त्र से दृष्टि बदल नहीं सकती। दृष्टि बदलने के लिए तो ‘ज्ञानीपुरुष’ की आवश्यक्ता है। ‘इस’ दृष्टि की वजह से ही संसार खड़ा हो गया है। ‘ज्ञानी’ दृष्टिभेद करवा देते हैं।
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